मैं कुछ कहना चाहता हूँ
एक अजनबी इंसान को राह चलते रोकना चाहता हूँ
चाय की चुस्कियों पर उस से गुफ़्तगू करना चाहता हूँ
क्या कहूँगा ये सोचा नहीं है अभी
पर शायद अपनी कहानी सुनाना चाहता हूँ
न जाने कैसे अरमान जग रहे हैं आजकल
मैं क्यूँ ही कुछ कहना चाहता हूँ
पूछता रहता हूँ खुद से यह सवाल
खोजता हूँ मन में शायद एक जवाब
पता नहीं जवाब मिल पाते या मैं सुन नहीं पता
लेकिन मन की गहराहियों को और टटोलने से हूँ कतराता
खुद के भीतर झाँकने से डरता हूँ
इसलिए शायद अपनी कहानी कहना चाहता हूँ
अजनबी ही क्यूँ जब दस काबिल दोस्त हैं मेरे
शायद परिचय का ही तो डर है
अक्लमंद हैं मेरे दोस्त जानते हैं मुझे
अनायास ही करने लगेंगे समीक्षा
मैं बस उस से कहना चाहता हूँ अपनी कहानी
जिसे मेरा ज़रा भी इल्म न हो
क्या ही रखा है मेरी कहानी में
कुछ अधूरी हसरतें
कुछ अनकही बातें
कुछ बिखरे आरज़ू
कुछ न हो सकी मुलाकातें
कुछ सूखे आंसू
सब कुछ ग़मगीन ही नहीं है बस
कुछ ख़ुशी के पल हैं
कुछ दोस्ती के फ़साने
एक बचपन का इश्क भी है
और कुछ वो पल हैं
जब खुद पे नाज़ हुआ था
शायद कुछ काम ही ऐसा किया था
एक एहसासों से भरी तिजोरी भी है
उस में कई और रंग छिपे हैं
लेकिन कब तक लिखता रहूँगा उन्हें
उन्हें तो मेरी आवाज़ की तलब है
इस कागज़ पर वो बस कोरे अलफ़ाज़ ही रह जाएँगे
लेकिन क्यूँ ही अपनी कहानी कहना चाहता हूँ
शायद खुद की आवाज़ सुनना चाहता हूँ
जिस साकित-ओ-ख़ामोश मंज़र में मैं क़ैद हूँ
उस से बस रिहाई चाहता हूँ
वक़्त के जिस मोड़ पर मैं खड़ा हूँ
यहाँ अपने वजूद को तलाशना चाहता हूँ
बस इसलिए अपनी कहानी कहना चाहता हूँ
अब बस गुफ़्तगू करना चाहता हूँ |
परिशिष्ट: यह कविता २३ अक्टूबर २०१६ को लिखी गयी थी | समय बदल गया है, मैं बदल गया हूँ | मैं अब कुछ नहीं कहना चाहता हूँ |
No comments:
Post a Comment