देखता हूँ जब उन अनजान बच्चों को
चौराहों पर गुब्बारे बेचते
कचड़ों के डब्बों से खाना बीनते
कांच की बोतलों की बोरी पीठ पर ढोते
तो ठहरता हूँ, सोचता हूँ
खुदा का शुक्रिया अदा करता हूँ
अपने नसीब पर
अपने आप में खोया हुआ
या दोस्तों के बीच मशगूल
बाज़ार के किसी कोने में बैठता हूँ
तो एक आवाज़ सुनता हूँ
भैय्या, पेन ले लो बीस की चार
तो ठहरता हूँ, सोचता हूँ
उन चमकती आँखों की
तमन्ना समझना चाहता हूँ
उन खिलखिलाती चेहरों की
मुस्कान बचाना चाहता हूँ
भविष्य के गर्भ से अनजान
वक्त की निष्ठुरता से परे
हँसते खेलते मासूम बच्चों को देखता हूँ
तो ठहरता हूँ, सोचता हूँ, डरता हूँ
कहीं अँधेरा बसेरा न बना ले इन आंखों में
कहीं शिकन न छ्प जाए इन चेहरों पर
तो ठहरता हूँ, सोचता हूँ
फिर बस सिसकता हूँ |
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